एक अजीब उलझन भरा दौर फिर सामने है मेरे हमेशा की तरह ?
ज़रा सा प्रोफेशनल फ्लो में ठहराव आता है कि ये सवाल घेरने लगते है.
जिस तरीके से जी रहे है ,क्या यही सही तरीका है जीने का।
या फिर जीने का कहाँ कोई तरीका हो सकता है ?
जब बैंक अकाउंट भर रहा था तो लाइफ सही चल रही थी ,
या चल ही नहीं रही थी।
हर सवाल के जवाब में हम दिन भर की कमाई सामने रख के कट लेते थे।
पैसा से थोडा छूटे तो दिल करता है कि प्यार के पीछे छुप जाओ और मुंह छुपा लो।
बीबी को देखता हूँ तो बिना सोचे जी रही है ,हँसते -खेलते।
बिल्डिंग में सामने जब सारी फैमिलीज़ मिल गयी तो दिन रात जलसा है।
कल क्या हुआ ,कल क्या होगा ,सब भूल गए है।
ये हमेशा भूले रहे तो क्या प्रॉब्लम है ?
लेकिन जैसे ही होश में आते है सब हिसाब लगाते है कि हम कितने आगे या पीछे है।
उसको जब टोकता हूँ टी,बच्चों की स्टडी ,प्रोफेशन में हेल्प या खानदानी रिलेशन को टाइम देने को तो अन्दर से आवाज़ आती है कि वो वैसे ही तो जी रही है ,जैसे मेरी किताबें कहती है।
लाइफ सेट है ,फिर भी एक अजीब सा खिंचाव या अनजाना सा डर है ,जो कि साथ साथ चलता है।
हमें सचमुच कोई खोज है या खोज का विचार हमारे भीतर डाल दिया है सबने।
हमने भी इसलिए इस खोज को मान लिया है कि बड़े को पाने की बात छोटे के न होने के दुःख को भुला देती है।
हमेशा कुछ कर के इस जीवन को सफल बना देने की फिक्र है।
लेकिन जब तक सांसए सोचने कि अक्ल आयी तब तक किसने सँभाला इस जीवन को।
सवाल अजीब है ,पर है तो सही?
बच्चे को कुछ बना देने कि फ़िक्र है ,पर हम क्या बन पाये है आज तक हमें नहीं पता।
हाँ ,दुनिया को पता है कि हम डॉक्टर है या टीचर।
कोई निष्कर्ष नहीं है ,मैं तो बस अपनी उलझन जैसी है ,वैसी बता देना चाहता हूँ।
हो सकता है ऐसा सबके भीतर चलता हो।
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